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News Desk| Muzaffarpur
सूरज ढल चुका था और स्कूल की घंटी बजने के बाद सब बच्चे घर लौट चुके थे, लेकिन सातवीं कक्षा के दीपक नौ के लिए दिन अभी खत्म नहीं हुआ था। वो अपनी ही कक्षा में बंद था। एक छोटी-सी चूक ने उसे एक भयानक अंधेरे और अकेलेपन में धकेल दिया था। स्कूल की रसोईया का पुत्र जो अक्सर बीमार रहता था, शायद थकान के मारे पिछली बेंच पर ही सो गया था। जब शिक्षक ने कक्षा में ताला लगाया, तो वे उसे देख नहीं पाए। चार बजे का स्कूल पांच बजते-बजते शांत हो गया था। अब सिर्फ दीपक की सिसकियों की आवाज़ गूंज रही थी।
ढाई घंटे तक वो रोता रहा, चीखता रहा, लेकिन उसकी आवाज उस खाली इमारत में ही दफन हो रही थी। एक पल के लिए सोचिए, उस छोटे से मन पर क्या बीती होगी? हर बीतता पल एक डरावना साया बनकर उसे घेर रहा था। क्या कोई आएगा? क्या वो हमेशा यहीं बंद रहेगा? ये सवाल उसके मासूम मन में खौफ बनकर घूम रहे थे।
यह सिर्फ एक लापरवाही नहीं थी, बल्कि एक बच्चे के विश्वास का टूटना था। स्कूल, जिसे बच्चे अपना दूसरा घर मानते हैं, वहीं उसे बेसहारा छोड़ दिया गया था। पास के बीएमपी परिसर में रहने वाले एक डीएसपी को उस मासूम बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। जब उन्होंने देखा कि एक बच्चा कमरे में बंद है, तो उन्होंने तुरंत कमांडेंट को सूचना दी। कमांडेंट ने भी इस मामले को संवेदनशीलता से लिया और अधिकारियों को तुरंत कार्रवाई करने को कहा।
जब तक बच्चे को बाहर निकाला गया, उसका रो-रोकर बुरा हाल हो गया था। डीएसपी ने उसे शांत कराया, प्यार से समझाया, और जल्द से जल्द निकालने का वादा किया। उस वक्त, वो डीएसपी एक अधिकारी से बढ़कर एक फरिश्ते की तरह थे। करीब साढ़े पांच बजे, जब ताला खुला और दीपक को सुरक्षित बाहर निकाला गया, तो मानो उसे एक नई जिंदगी मिली। इस घटना ने एक सवाल जरूर खड़ा किया है- क्या हम बच्चों की सुरक्षा को लेकर इतने लापरवाह हो गए हैं? दीपक के साथ जो हुआ, वो एक सबक है कि हर छोटे कदम की निगरानी कितनी जरूरी है, ताकि कोई भी बच्चा दोबारा ऐसे खौफनाक इंतजार का शिकार न हो। यह घटना सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि एक दर्दनाक कहानी है जो हमें याद दिलाती है कि हमारे बच्चों की सुरक्षा हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
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