20 साल की प्यास: बिहार चुनाव में काँग्रेस की जद्दोजहद, क्या इस बार लौटेगी रौनक?

TrendingPolitics

Indian National Congress: लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी ने इन दिनों बिहार में 17 अगस्त से 1 सितम्बर तक वोटर अधिकार यात्रा निकाला था। राहुल गांधी का   मकसद था राज्य की वोटर लिस्ट में हो रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) और कथित वोट चोरी पर ध्यान दिलाना। लेकिन सबको पता है कि यह यात्रा सिर्फ वोटर लिस्ट तक लिमिट नहीं है। कांग्रेस और खुद राहुल गांधी के लिए बिहार की यह जंग आसान तो बिल्कुल भी नहीं होने वाली। पार्टी पिछले कई दशकों से बिहार में किनारे पर है। बड़े-बड़े नेताओं की रैलियों में भीड़ तो जरूर जुट जाती है, लेकिन वोट और सीटें नहीं मिल पातीं।

वैसे तो भारतीय राजनीति में कांग्रेस को "ग्रैंड ओल्ड पार्टी" कहा जाता है लेकिन बिहार की राजनीति में इस समय पार्टी अपनी सबसे कठिन चुनौती से गुजर रही है— अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की जद्दोजहद।


दो दशक से ज्यादा की भूख 

कभी बिहार में कांग्रेस सबसे मजबूत पार्टी मानी जाती थी। लेकिन 1967 के बाद से हालात लगातार बिगड़ते गए। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट और सीट शेयर दोनों ही तेजी से गिरा। साल 2005 की अक्टूबर विधानसभा चुनावों तक, जब नीतीश कुमार ने अपना पहला पूर्णकालिक सरकार बनाया, तब तक कांग्रेस की स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। उस समय तक बिहार की 69% विधानसभा सीटों पर पिछले 20 वर्षों से कांग्रेस का कोई विधायक नहीं चुना गया था। इतना ही नहीं, करीब 22% सीटों पर पिछले एक दशक से कांग्रेस का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। यानी साफ है कि बिहार में कांग्रेस का असर अब सिर्फ कागजों तक रह गया है।

केवल सहयोगी दल की छाया 

आज की तारीख में कांग्रेस का बिहार में कोई स्वतंत्र राजनीतिक चेहरा या ठोस पहचान नहीं बन पाई है। पार्टी को मुख्य रूप से राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सहयोगी दल के तौर पर देखा जाता है। इसका सीधा मतलब है कि कांग्रेस का वोटबैंक और पहचान लगभग पूरी तरह से RJD की राजनीति पर निर्भर हो चुका है। कांग्रेस के पास अपनी नीतियों, लीडर्शिप या शासकीय ताकत के दम पर वोट खींचने की क्षमता बहुत कम बची है। यही वजह है कि बिहार की राजनीति में उसकी पहचान लगातार घट रही है।


सबसे बड़ा सवाल ?

अब राहुल गांधी और कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है—क्या इतनी बुरी हालत से पार्टी दोबारा उठ पाएगी? क्या इस बार पार्टी अपने 20 साल के भूख को मिटा पाएगी? अगर पार्टी को दोबारा खड़ा होना है तो सिर्फ गठबंधन के भरोसे नहीं, बल्कि अपने संगठन और चेहरों पर भी ध्यान देना होगा। फिलहाल तो यही दिखता है कि बिहार की राजनीति में कांग्रेस अभी भी “मेहमान” की तरह है, मालिक बनने से बहुत दूर।